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सोजे-ए-वतन--मुंशी प्रेमचंद


शोक का पुरस्कार मुंशी प्रेम चंद
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मैं रोता हुआ घर आया और चारपाई पर मुँह ढाँपकर खूब रोया। नैनीताल जाने का इरादा खत्म हो गया। दस-बारह दिन तक मैं उन्माद की-सी दशा में इधर-उधर घूमता रहा। दोस्तों की सलाह हुई कि कुछ रोज़ के लिए कहीं घूमने चले जाओ। मेरे दिल में भी यह बात जम गयी। निकल खड़ा हुआ और दो महीने तक विन्ध्याचल, पारसनाथ वग़ैरह पहाडिय़ों में आवारा फिरता रहा। ज्यों-त्यों करके नई-नई जगहों और दृश्यों की सैर से तबियत को ज़रा तस्कीन हुई। मैं आबू में था जब मेरे नाम तार पहुँचा कि मैं कालेज की असिस्टेण्ट प्रोफेसरी के लिए चुना गया हूँ। जी तो न चाहता था कि फिर इस शहर में आऊँ, मगर प्रिन्सिपल के ख़त ने मजबूर कर दिया। लाचार, लौटा और अपने काम में लग गया। जिन्दादिली नाम को न बाक़ी रही थी। दोस्तों की संगत से भागता और हँसी मज़ाक से चिढ़ मालूम होती।
एक रोज़ शाम के वक्त मैं अपने अँधेरे कमरे में लेटा हुआ कल्पना-लोक की सैर कर रहा था कि सामने वाले मकान से गाने की आवाज़ आयी। आह, क्या आवाज थी, तीर की तरह दिल में चुभी जाती थी, स्वर कितना करुण था! इस वक्त मुझे अन्दाज़ा हुआ कि गाने में क्या असर होता है। तमाम रोंगटे खड़े हो गये, कलेजा मसोसने लगा और दिल पर एक अजीब वेदना-सी छा गयी। आँखों से आँसू बहने लगे। हाय, यह लीला का प्यारा गीत था-
पिया मिलन है कठिन बावरी।
मुझसे ज़ब्त न हो सका, मैं एक उन्माद की-सी दशा में उठा और जाकर सामने वाले मकान का दरवाजा खटखटाया। मुझे उस वक़्त यह चेतना न रही कि एक अजनबी आदमी के मकान पर आकर खड़े हो जाना और उसके एकान्त में विघ्न डालना परले दर्जे की असभ्यता है।

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